असम में भाजपा का चुनावी दांव- सरकारी मदरसों के साथ ही संस्कृत केंद्र भी बंद होंगे; पढ़िए नए कानून के बारे में सबकुछ

असम में 30 दिसंबर को एक बिल पास हुआ है। इस बिल को 13 दिसंबर को ही कैबिनेट की मंजूरी मिली थी। विधानसभा में पास होते ही बिल अब कानून बन चुका है। इस कानून के तहत 1 अप्रैल 2021 से राज्य के सभी सरकारी मदरसे और संस्कृत केंद्रों को बंद कर दिया जाएगा। इसके पीछे असम के संसदीय कार्य मंत्री चंद्र मोहन पटवारी ने तर्क दिया कि उनकी सरकार धार्मिक शिक्षा के लिए सरकारी फंड खर्च नहीं कर सकती, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष सरकार का काम धार्मिक शिक्षा देना नहीं है। लेकिन, सवाल ये भी है कि असम में कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं, ऐसे में इसे एक बड़ा चुनावी दांव भी कहा जा रहा है। असम सरकार का कानून क्या है? धार्मिक शिक्षा को लेकर संविधान क्या कहता है? ऐसे ही सवालों का जवाब जानते हैं...

सबसे पहले बात धार्मिक शिक्षा पर क्या कहता है संविधान?
हमारा संविधान सेक्युलर है। संविधान राज्य की तरफ से धार्मिक शिक्षा की मनाही करता है, लेकिन अल्पसंख्यकों को कुछ अधिकार भी दिए गए हैं। संविधान के आर्टिकल 25 से आर्टिकल 30 तक में इसका जिक्र है।

  • आर्टिकल 25ः हर व्यक्ति को धर्म मानने, आचरण करने और उसका प्रसार करने का अधिकार है।
  • आर्टिकल 26ः किसी को भी अपने धर्म के लिए संस्थाओं की स्थापना और उसका पोषण करने का अधिकार है।
  • आर्टिकल 27ः किसी भी व्यक्ति को ऐसा टैक्स देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, जिसका इस्तेमाल किसी खास धर्म या धार्मिक संप्रदाय को बढ़ावा देने में होता है।
  • आर्टिकल 28ः राज्य के फंड से चलने वाली किसी शिक्षण संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। हालांकि, इनमें उन संस्थानों को छूट मिली है, जो किसी ट्रस्ट के तहत बने हैं। यानी, किसी ट्रस्ट के तहत बने शिक्षण संस्थान में धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है, भले ही उसे राज्य की तरफ से फंड क्यों न मिलता हो।
  • आर्टिकल 29ः अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार है। सिर्फ भाषा, जाति, धर्म या संस्कृति के आधार पर उसे किसी भी सरकारी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश से नहीं रोका जा सकता।
  • आर्टिकल 30ः अल्पसंख्यक वर्ग को शिक्षण संस्थान की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार है और सरकार उसे फंड देने में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं कर सकती।

अब बात असम सरकार के नए कानून की...
असम सरकार ने जो कानून बनाया है, उसके तहत स्टेट मदरसा एजुकेशन बोर्ड को 2021-22 के रिजल्ट आने के बाद खत्म कर दिया जाएगा। इसके बाद सारे रिकॉर्ड्स, बैंक अकाउंट और स्टाफ स्टेट एजुकेशन बोर्ड को ट्रांसफर कर दिए जाएंगे।

क्योंकि ये कानून 1 अप्रैल 2021 से लागू हो रहा है, इसलिए इस साल से वहां के मदरसा में एडमिशन नहीं होगा। अब इन सभी मदरसों को आम स्कूलों की तरह बदल दिया जाएगा और यहां धार्मिक शिक्षा की पढ़ाई नहीं होगी, बल्कि जो पढ़ाई बाकी स्कूलों में होती है, वही होगी।

इसी तरह वहां के संस्कृत केंद्रों को भी बंद कर दिया जाएगा। संस्कृत केंद्रों को अब भारतीय विरासत और सभ्यता केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा।

तो क्या असम सरकार का फैसला संविधान के हिसाब से सही है?
संविधान का जो आर्टिकल 30 है, उस पर कई सालों से बहस चल रही है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आर्टिकल 30 के दायरे में हिंदुओं को भी शामिल करने की मांग की थी।

2002 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 29 और 30 में अल्पसंख्यकों के अधिकार की पड़ताल की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उस वक्त कहा था कि सरकार अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को आर्थिक मदद करते हुए रेगुलेट कर सकती है। हालांकि, कोर्ट ने ये भी कहा था कि इससे अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकार खत्म नहीं होने चाहिए।

असम सरकार के इस फैसले पर दो तरह की बातें हो रही है। एक जो इसके पक्ष में हैं और दूसरे जो इसके विरोध में हैं। जो पक्ष में हैं, उनका कहना है कि ये सही है कि संविधान के अनुसार राज्य धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा नहीं दे सकते, इसलिए ये फैसला सही है। जो विरोध में हैं, उनका कहना है कि सरकार को इसमें सभी पक्षों को साथ लेकर चलना चाहिए।

असम सरकार के इस फैसले का कितने मदरसों और संस्कृत स्कूलों पर असर होगा?
स्टेट मदरसा एजुकेशन बोर्ड के मुताबिक, असम में 614 सरकारी मदरसे हैं। इनमें से 400 उच्च मदरसे, 112 जूनियर मदरसे और 102 सीनियर मदरसे हैं। इनमें से 57 मदरसे लड़कियों के लिए हैं, तीन लड़कों के लिए हैं और बाकी 554 को-एड यानी लड़के-लड़कियों दोनों के लिए हैं। सरकारी मदरसों के अलावा करीब 900 मदरसे प्राइवेट हैं, जिन्हें जमीयत उलेमा की तरफ से चलाया जाता है। इसके अलावा असम में 97 संस्कृत स्कूल हैं, जिन्हें वहां की भाषा में टोल कहा जाता है।

असम में कुछ महीनों में चुनाव भी हैं, क्या फैसले का कोई असर पड़ेगा?
ये समझने से पहले हमें असम की डेमोग्राफी समझना जरूरी है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, असम की 62% आबादी हिंदू है। जबकि 35% के आसपास मुस्लिम आबादी है।

अप्रैल-मई में असम में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां अभी भाजपा की सरकार ही है और सर्बानंद सोनोवाल मुख्यमंत्री हैं। चुनाव से ठीक पहले लिए गए इस फैसले को ध्रुवीकरण से जोड़ा जा रहा है। जानकारों का कहना है कि भाजपा और हिंदू संगठन अक्सर मदरसों में मिलने वाली शिक्षा पर सवाल उठाते रहे हैं। उनके मुताबिक, मदरसों में पढ़ने की वजह से ही मुसलमानों में कट्टरता बढ़ रही है।

2016 में असम में जब चुनाव हुए थे, तो भाजपा ने यहां की 126 सीटों में से 60 सीटें जीती थीं। जबकि, उसकी सहयोगी असम गण परिषद ने 14 सीटों पर जीत हासिल की थी। 2011 के चुनाव में भाजपा ने सिर्फ 5 सीटें जीती थीं।

2016 में भाजपा की इतनी बड़ी जीत के पीछे हिंदू वोटर ही थे। चुनाव के बाद लोकनीति ने एक सर्वे किया था। इस सर्वे में सामने आया कि 63% हिंदुओं ने भाजपा को वोट दिया है, जबकि सिर्फ 5% मुसलमान भाजपा के साथ थे। हिंदुओं के अलावा भाजपा को 39% ईसाइयों ने भी वोट दिया था।

संस्कृत स्कूल भी तो बंद हो रहे हैं, फिर हिंदू-मुसलमान की बात क्यों?
इस फैसले का असर तो हिंदू और मुसलमान दोनों पर ही पड़ेगा। मदरसों के बंद होने का जितना विरोध हो रहा है, उतना विरोध संस्कृत स्कूलों के बंद होने का नहीं हो रहा है। मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल जहां से विधायक हैं, वो माजुली विधानसभा सीट है। माजुली में 32 वैष्णव मठ हैं, जो 15वीं सदी के संत-समाज सुधारकर श्रीमंंत शंकरदेव की शिक्षाओं का पालन करते आ रहे हैं। इन 32 में से 10 मठों में संस्कृत केंद्र हैं। माजुली के दखिनपाट मठ के मठाधीश जनार्दन देव गोस्वामी कहते हैं कि संस्कृत हमारी संस्कृति का हिस्सा है। वो सरकार के इस फैसले को मानने से इनकार भी करते हैं।



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